आर्कटिक क्षेत्र में भू-राजनीतिक तनाव
आर्कटिक क्षेत्र वैश्विक शक्तियों के बीच बढ़ते तनाव का केंद्र बनता जा रहा है। जलवायु परिवर्तन के कारण बर्फ तेजी से पिघल रही है, जिससे अपार प्राकृतिक संसाधन और नई नौवहन मार्ग (शिपिंग रूट) खुल रहे हैं। इस स्थिति ने आर्कटिक देशों के बीच सैन्य गतिविधियों और क्षेत्रीय विवादों को बढ़ावा दिया है। अंटार्कटिका के विपरीत, आर्कटिक में संसाधनों को नियंत्रित करने और शांति बनाए रखने के लिए कोई व्यापक अंतरराष्ट्रीय संधि नहीं है।
जलवायु परिवर्तन और संसाधनों तक पहुंच
जलवायु परिवर्तन के कारण आर्कटिक बर्फ तेजी से पिघल रही है, जिससे तेल, प्राकृतिक गैस और दुर्लभ खनिज तत्वों जैसे बहुमूल्य संसाधन उजागर हो रहे हैं। अनुमान के अनुसार, आर्कटिक में दुनिया के 13% अज्ञात तेल भंडार और 30% अप्रयुक्त प्राकृतिक गैस भंडार मौजूद हैं। ये संसाधन ऊर्जा सुरक्षा और वैश्विक आर्थिक विकास के लिए अत्यंत महत्वपूर्ण हैं, जिससे देशों के बीच प्रतिस्पर्धा बढ़ रही है।
क्षेत्रीय दावे और शासन
आठ देश आर्कटिक क्षेत्र में अपने दावे रखते हैं—कनाडा, डेनमार्क, फिनलैंड, आइसलैंड, नॉर्वे, रूस, स्वीडन और अमेरिका। ये देश आर्कटिक काउंसिल का हिस्सा हैं, जो पर्यावरण संरक्षण और मूलनिवासी समुदायों के अधिकारों पर ध्यान केंद्रित करता है। संयुक्त राष्ट्र समुद्री कानून संधि (UNCLOS) के तहत, देश अपने समुद्री क्षेत्रों का विस्तार कर सकते हैं यदि वे अपनी महाद्वीपीय शेल्फ का प्राकृतिक विस्तार साबित कर सकें। हालांकि, रूस, कनाडा और डेनमार्क के overlapping दावों के कारण तनाव बढ़ रहा है।
सैन्य गतिविधियां और रणनीतिक हित
आर्कटिक में सैन्य उपस्थिति तेजी से बढ़ रही है। रूस के पास सबसे बड़ा आइसब्रेकर बेड़ा (icebreaker fleet) है, जो उसे बर्फीले पानी में नेविगेट करने में बढ़त देता है। अमेरिका ग्रीनलैंड में रुचि दिखा रहा है, जिससे डेनमार्क के साथ उसका टकराव बढ़ रहा है। इसके अलावा, कनाडा और अमेरिका के बीच नॉर्थवेस्ट पैसेज (Northwest Passage) को लेकर मतभेद बने हुए हैं। ये क्षेत्रीय और नौवहन विवाद भविष्य में सैन्य टकराव का कारण बन सकते हैं।
अंतरराष्ट्रीय प्रतिक्रियाएं और गठबंधन
आर्कटिक की रणनीतिक अहमियत के कारण नाटो (NATO) देशों, विशेष रूप से अमेरिका, ने रूस की सैन्य गतिविधियों को लेकर चिंता जताई है। स्वीडन और फिनलैंड के नाटो में शामिल होने से क्षेत्र में सैन्य अभ्यास बढ़ गए हैं। वहीं, चीन ने खुद को ‘नियर-आर्कटिक स्टेट’ (Near-Arctic State) घोषित किया है और आर्कटिक क्षेत्र में अपनी उपस्थिति बढ़ा रहा है। चीन ने हाल ही में एक न्यूक्लियर-पावर्ड आइसब्रेकर बनाने की घोषणा की है, जिससे पश्चिमी देशों की चिंता बढ़ गई है।
नए व्यापार मार्गों के आर्थिक प्रभाव
बर्फ के पिघलने से नए समुद्री व्यापार मार्ग खुल रहे हैं। नॉर्थईस्ट पैसेज (Northeast Passage) पूर्व एशिया और यूरोप के बीच नौवहन दूरी को कम कर सकता है, जिससे परिवहन लागत घट सकती है। हालांकि, इस मार्ग की सफलता रूस और चीन के बीच सहयोग पर निर्भर करेगी, क्योंकि रूस के पास आर्कटिक बंदरगाहों का नियंत्रण है। यह आर्थिक अवसर व्यापार संबंधों को नया रूप दे सकता है, लेकिन साथ ही भू-राजनीतिक प्रतिद्वंद्विता भी बढ़ा सकता है।
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रूस की आर्कटिक रणनीति – उसकी सैन्य और आर्थिक योजनाएँ, आइसब्रेकर बेड़ा, और आर्कटिक में उसके सैन्य ठिकाने।
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अमेरिका और नाटो की नीतियाँ – अमेरिका, कनाडा और यूरोपीय देशों की आर्कटिक रणनीति और नाटो की भूमिका।
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चीन का आर्कटिक में बढ़ता प्रभाव – चीन की ‘नियर-आर्कटिक स्टेट’ नीति, आर्कटिक सिल्क रोड, और चीन-रूस सहयोग।
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आर्कटिक में समुद्री मार्गों का भविष्य – नॉर्थईस्ट पैसेज बनाम नॉर्थवेस्ट पैसेज, व्यापार पर प्रभाव और संभावित विवाद।
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पर्यावरणीय चुनौतियाँ – जलवायु परिवर्तन का प्रभाव, आर्कटिक की जैव विविधता और पारिस्थितिकी तंत्र को खतरे।
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भारत की आर्कटिक नीति – भारत की आर्कटिक में बढ़ती भूमिका, आर्कटिक अनुसंधान, और रणनीतिक साझेदारियाँ।
भविष्य की संभावनाएं
जैसे-जैसे आर्कटिक का तापमान बढ़ रहा है, क्षेत्रीय विवाद और सैन्य गतिविधियां तेज हो सकती हैं। देश अपनी उपस्थिति मजबूत कर रहे हैं और अपने दावे पुख्ता करने के लिए कदम उठा रहे हैं। संसाधनों, व्यापार मार्गों और रणनीतिक प्रभुत्व को लेकर बढ़ती प्रतिस्पर्धा भविष्य में राजनयिक तनाव या सैन्य टकराव का कारण बन सकती है। आर्कटिक की वैश्विक महत्वता को देखते हुए, यह क्षेत्र आने वाले वर्षों में अंतरराष्ट्रीय राजनीति और प्रतिस्पर्धा का केंद्र बना रहेगा।
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